हम पंछी उन्मुक्त गगन के ( कविता )
हम पंछी उन्मुक्त गगन के पिंजरबद्ध न गा पाएँगे, कनक-तीलियों से टकराकर । पुलकित पंख टूट जाएँगे। हम बहता जल पीनेवाले मर जाएँगे भूखे-प्यासे, कहीं भली है कटुक निबोरी कनक-कटोरी की मैदा से । स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में अपनी गति, उड़ान सब भूले, बस सपनों में देख रहे हैं। तरु की फुनगी पर के झूले । ऐसे थे अरमान कि उड़ते नील - गगन की सीमा पाने, लाल किरण-सी चोंच खोल । चुगते तारक-अनार के दाने। होती सीमाहीन क्षितिज से इन पंखों की होड़ा-होड़ी, या तो क्षितिज मिलन बन जाता या तनती साँसों की डोरी। नीड़ न दो, चाहे टहनी का आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो, लेकिन पंख दिए हैं, तो आकु ल उड़ान में विघ्न न डालो । - डॉ शिवमंगल सिंह 🌸🌺🌼🌻🌾🌿 Share on Whatsapp